“तुम-म-म पुकार लो,
तुम्हारा इंतज़ार है,
ख़्वाब चुन रही है,
रात बेक़रार है।”
या
“हमने देखी है इन आँखों की महकती ख़ुशबू,
हाथ से छूके इसे रिश्तों का इलज़ाम न दो,
सिर्फ़ एहसास है ये, रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।”
ख़ामोशी फ़िल्म के ये गीत, शायद 1969 के हैं। आज TV पर ये फ़िल्म फिर से देखी—
पहले भी कई बार देख चुकी हूँ
कितना बेहतरीन अभिनय किया है, वहीदा रहमान ने— दर्शक उनके दर्द को महसूस कर सकते हैं,
जैसे कि कोई अपना हो—
कोई चीखना-चिल्लाना नहीं, रोना नहीं, ना ही ज़ोर-ज़ोर से डायलॉग बोलना,
सारा अभिनय सिर्फ़ आँखों से,
और फ़िल्म ख़त्म होने के बाद भी, आप के दिलोदिमाग़ में वही सब घुमता रहता है।
राजेश खन्ना ने भी अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी है, ख़ासकर उस गाने में—-
“वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है,
वो कल भी पास-पास थी, वो आज भी क़रीब है—-“
इस तरह की दिल को छूने वाली फ़िल्में अब कहाँ बनतीं हैं ।